पुरानी और नई स्मृतियों का आईना है नया साल

सलीम रज़ा  /
हम हर साल पूरे जोश-ओ-खरोश के साथ नये साल के इस्तकबाल के लिए अपने पलक-पांवड़े बिखेर देते हैं और बड़ी बेसर्बी से इन्तजार करते हैं। वर्तमान साल के आखिरी महीने के आखिरी दिन के रात 12 बजने का। जैसे ही घड़ी की दोनों सुईंया आपस में गले मिलती हैं, तो हम भी लग जाते हैं एक दूसरे के गले और देने लगते हैं उसे बधाई। आखिर नये साल को लेकर इतना शोर कैसा? क्या हम बीते हुए साल के दिस्वप्न को एक लम्हें में भूल जाते है? जबकि संबन्धों में पड़ी खटास को तो हम सालों-साल न भूल पाने का संकल्प ले लेते हैं, क्यों? अगर दोनों एक-दूसरे के परस्पर विरोधी हैं तो फिर हर नये साल पर बधाईयों का गुल-गपाड़ा कैसा? ऐसा नहीं लगता कि इस महा आयोजन को मनाने के पीछे हमारी कोई मजबूरी है। हमारे देश में जब सारी बातें धर्म आधारित होने लगी हैं तो फिर पाश्चात्य सभ्यता के रंग में रंग कर अपने धर्म से विरक्त होकर दूसरे की खुशियों में शरीक होने का क्या मतलब? ऐसा तो नहीं हम क्षणिक सुख के लिए अपने संस्कारों की तिलांजली देने के लिए आत्मसमर्पण कर देते हैं। ये आत्मसमर्पण की भावना ही हमें कमजोर बना देती है। हमारी इच्छा शक्ति को विचलित कर देती है। हम बाहर चाहें जितना भी अपने धर्म के प्रति कट्टर रूख अपनाते हों, लेकिन हम जिस तरह से अपने धर्म में न मनाये जाने वाली चीजों को पूरा आसमान सिर पर उठाकर करते हैं, उसे देखकर नहीं लगता कि हम आज भी किस कदर कमजोर हैं। ये हमारा देश भारत है, जहां सभी धर्मों के लोग एक आसमान के नीचे रहते है। सभी धर्मों के आयोजन पूरी निष्ठा और संस्कारित भाव से मनाये जाते हैं। हमारे देश की वर्तमान दौर की सियासत ने इन इन्द्रधनुषी रंगों की चमक को धूमिल करने का काम किया है। हमारे देश हिन्दुस्तान में 1 जनवरी को नये साल मनाने वाले लोगों की संख्या ज्यादा है। ये जानते हुए भी कि जनवरी माह की 1 तारीख को मनाया जाने वाला नया साल पूरी तरह से ईसाईयत के रंग में रंगा हुआ है। हमारे देश हिन्दुस्तान में हिन्दुओं के द्वारा मनाये जाने वाले नये साल का पहला दिन चैत्र माह से शुरू होता है, इसे हिन्दू नव संवतसर कहते हैं। इसी दिन भगवान ब्रह्मा ने सृष्टि की रचना की थी और जो सृष्टि का रचयिता है तो क्यों नहीं हम उस सृष्टि रचयिता का इस दिन स्मरण करते। मुस्लिम धर्म का नया साल मोहर्रम के महीने से शुरू होता है तो सिक्ख धर्म के लोग बैशाख के महीने में नया साल मनाते है। वहीं सिन्धी लोग अपना नया साल चैत्र माह में चैटीवंड उत्सव से मनाते हैं तो जैन धर्म में नये साल का आगाज दीपावली माह से होता है। पारसी लोग नया साल नवरोज के रूप में मनाते हैं, जो अगस्त महीने से शुरू होता है तो वहीं हिब्रू नव वर्ष जो 5 सितम्बर से 5 अक्टूबर के बीच मनाया जाता है। ऐसा कहा जाता है कि भगवान द्वारा विश्व को बनाने में सात दिन का समय लगा था। अब प्रश्न ये उठता है कि जब सबके नये साल मनाने का दिन अलग है फिर ईसाईयत पर इतना जोर क्यों ? चलिए ये तो हम सब जानते हैं कि इस युग में अगर हम अपने-अपने आयोजन अलग-अलग मनायें तो वो बात नहीं रह सकती इसलिए बीच का रास्ता तलाशा जाता है और ये रास्ता है 1 जनवरी को मनाया जाने वाला नया साल जो सभी धर्मों का विकल्प है। जिसे सभी धर्म के लोग एक साथ मिलकर आपसी सौहार्द के साथ मनाते हैं। इसलिए ये बात सही है कि ईसाईयत सभी धर्मों पर भारी है, इसे नकारा नहीं जा सकता। ये उन सियासी आकाओं के ऊपर भी सवालिया निशान लगाता है, जो लोगों के बीच धर्म की दीवार खड़ी करने की कोशिश करते हैं। दूसरा एक और प्रश्न इन सारी बातों में से निकलकर सामने आया। वो ये कि जब नये साल के जश्न और उसके मनाने पर कोई रोक-टोक नहीं हैं तो फिर वैलेन्टाईन को मनाने में इन्हीं संगठनों के द्वारा हाय-हल्ला क्यों। ये भी तो ईसाईयत के रंग में डूबा हुआ महापर्व है। अगर इसमें अश्लीलता है तो फिर नव वर्ष में कौन सी अश्लीलता नहीं होती। जिसमें नौजवान युवक युवतियां आधी रात को नशे में सराबोर चन्द दिनों के अनजान साथी और भावी हमसफर की गलबहियां करती देखी जा सकती हैं। इनसे ये पूछा जाये कि नये साल का जश्न क्या सोचकर मना रहे हैं तो जबाब ये ही होगा कि इस दिन को एंज्वाॅय करके पिछले खट्टे मीठे अनुभवों को भूलकर नये साल में नया संकल्प लेकर भविष्य की रूपरेखा तैयार करने का जरिया है। क्या हम सच में पुराने साल की विस्मृतियों को अपने दिमाग से निकाल देते हैं। शायद ऐसा नहीं है, क्योंकि भूतकाल की यादें वर्तमान को सजाती हैं और भविष्य को संवारती हैं। ये ही खट्टे-मीठे अनुभव हमें जीने की प्रेरणा देते हैं। क्योंकि सारा जीवन ग्रहों की चाल पर निर्भर करता है। हमारा भाग्य जो हमारे जीवन लेने से बहुत पहले सृष्टि रचयिता के द्वारा लिख दिया जाता है, उसमें बदलाव तो नहीं होता। हां आंशिक तौर से हम अपने कर्मों के जरिए उसमें सुधार अवश्य कर सकते हैं। लिहाजा हमें अपने कर्मों अपने क्रियाकलापों अपने उद्देश्य और अपने व्यवहार पर सारा ध्यान केन्द्रित करना चाहिए। ये सिर्फ मायावी सोच है जिसके जाल में फंसकर अपने धर्म अपने संस्कार को भूलकर अपने जीवन को पीछे की ओर धकेलते हैं।

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