गुरु-शिष्य परम्परा को समर्पित गुरु पूर्णिमा पर्व आज

गुरुर्ब्रह्मा ग्रुरुर्विष्णुः गुरुर्देवो महेश्वरः।

गुरुः साक्षात् परं ब्रह्म तस्मै श्री गुरवे नमः॥

आषाढ़ मास की पूर्णिमा को गुरु पूर्णिमा कहते हैं, इस दिन गुरु की पूजा की जाती है, मान्यता है कि आषाढ़ पूर्णिमा तिथि को ही वेदों के रचयिचा महर्षि वेदव्यास का जन्म हुआ था, महर्षि वेदव्यास के जन्म पर सदियों से गुरु पूर्णिमा के दिन गुरु पूजन की परंपरा चली आ रही है।

वेद व्यास को महाभारत का रचनाकार और पुराणों का व्याख्याता माना जाता है। महर्षि व्यास पाराशर ऋषि के पुत्र तथा महर्षि वशिष्ठ के पौत्र थे। महर्षि व्यास को गुरुओं का भी गुरु माना जाता है। इसलिए आषाढ़ शुक्ल पूर्णिमा को सभी शिष्य अपने-अपने गुरु की पूजा विशेष रूप से करते हैं।

महर्षि वेद व्यास भारतीय ज्ञान गरिमा के अक्षय प्रेरणा स्रोत रहे हैं। उनकी रचनाओं का ही यह प्रतिफल है कि हम आज भी अपनी पुरातन संस्कृति को आत्मसात् किये हुए हैं। आध्यात्मिक चिंतकों के अनुसार, वह गुरु ही है जो किसी व्यक्ति को जीवन और मृत्यु के दुष्चक्र से पार करता है और उसे शाश्वत आत्मा या चेतना की वास्तविकता का एहसास कराने में मदद करता है। ऐसा माना जाता है कि इस दिन प्रार्थनाएं सीधे महागुरु तक पहुंचती हैं और उनका आशीर्वाद शिष्य के जीवन से अंधकार और अज्ञानता को दूर करता है।

ऐसा कहा गया है कि इस दिन गुरु का देवताओं की तरह पूजन करना चाहिए और अपने गलत व्यवहार के लिए क्षमा मांगनी चाहिए। इस दिन अपनी शक्ति के अनुसार दान भी अवश्य देना चाहिए और गुरु को प्रसन्न कर उनका आशीष ग्रहण करना चाहिए। विभिन्न आश्रमों में शिष्यों द्वारा पदपूजा या ऋषि के जूतों की पूजा की व्यवस्था की जाती है और लोग उस स्थान पर इकट्ठा होते हैं जहां उनके गुरु का आसन होता है, खुद को उनकी शिक्षाओं और सिद्धांतों के प्रति समर्पित करते हैं।

 

यह दिन गुरु भाई या साथी शिष्य को भी समर्पित है और भक्त आध्यात्मिकता की ओर अपनी यात्रा में एक दूसरे के प्रति अपनी एकजुटता व्यक्त करते हैं। यह दिन शिष्यों द्वारा अब तक की अपनी व्यक्तिगत आध्यात्मिक यात्राओं के आत्मनिरीक्षण पर व्यतीत किया जाता है।

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