उत्तराखंड की संस्कृति और लोक परंपराओं में आज 27 अगस्त का दिन बेहद खास है। खासकर कुमाऊं क्षेत्र में आज बिरुड़ पंचमी (Birud Panchami) का पर्व बड़े श्रद्धा भाव से मनाया जा रहा है। इसी के साथ प्रदेश का प्रमुख लोक पर्व सातू-आंठू (Satu-Aanthu) भी शुरू हो चुका है। इस पर्व का महत्व सिर्फ धार्मिक ही नहीं बल्कि सामाजिक और पारिवारिक स्तर पर भी बेहद खास माना जाता है।
विवाहित महिलाएं करती हैं पूजा और अनाज भिगोने की परंपरा
इस दिन विवाहित महिलाएं पांच प्रकार के अनाज (जिन्हें बिरुड़ कहा जाता है) को तांबे के बर्तन में भिगोती हैं। साथ ही अपने आराध्य देव गौरा–महेश की पूजा अर्चना करती हैं। इस अनुष्ठान के बाद ही सातू-आंठू के व्रत की शुरुआत होती है। यह व्रत सुख-समृद्धि, संतान सुख और परिवार की उन्नति के लिए किया जाता है।
बिरुड़ पंचमी की लोककथा
कहा जाता है कि प्राचीन समय में बिणभाट नाम का एक ब्राह्मण था, जिसके सात बेटे और सात बहुएं थीं। लेकिन किसी की भी संतान नहीं थी। एक दिन बिणभाट की मुलाकात नदी किनारे माता गौरा से हुई, जो अनाज धो रही थीं। माता गौरा ने उन्हें बताया कि जो महिलाएं सप्तमी-अष्टमी को व्रत रखकर बिरुड़े भिगोएंगी, अखंड दीपक जलाएंगी और गौरा–महेश की पूजा करेंगी, उनकी सभी मनोकामनाएं पूरी होंगी। बिणभाट ने यह बात अपनी बहुओं को बताई। लेकिन छह बहुएं इस व्रत को निभा नहीं सकीं। सिर्फ सातवीं बहू ने श्रद्धा और विश्वास के साथ व्रत पूरा किया, जिसके बाद उसे संतान सुख प्राप्त हुआ। तभी से उत्तराखंड में बिरुड़ पंचमी की परंपरा शुरू हुई।
सातू-आंठू और प्रसाद की विशेषता
इस दिन पांच या सात तरह के अनाज तांबे के बर्तन में भिगोए जाते हैं। इनमें दाड़िम, हल्दी, सरसों, दूर्बा और सिक्के की पोटली भी रखी जाती है। जब ये अनाज अंकुरित होते हैं तो इन्हें पोषक तत्वों से भरपूर प्रसाद माना जाता है। सातू-आंठू पर्व के दौरान इन्हें प्रसाद स्वरूप परिवार और समाज के बीच बांटा जाता है।
संस्कृति से जुड़ने का पर्व
यह पर्व न सिर्फ धार्मिक आस्था से जुड़ा है बल्कि सामाजिक एकता और पारिवारिक समृद्धि का प्रतीक भी है। महिलाएं आपस में मिलकर पूजा-अर्चना करती हैं और पारंपरिक गीतों के साथ त्योहार को उत्साहपूर्वक मनाती हैं।